जीवन आधार परमात्मा ही है

एक तुम्हीं जीवन-आधार

मेरे जीवन का अथ क्या है, इति क्या है, प्रभु! मैं यह भी तान नहीं जानता। मुझे ऐसा लगता है, तुम्हारे जीवन का ही एक अंश लेकर प्रादुर्भूत हुआ, प्राणी मैं केवल तुम्हारा ही हूँ। तुम्हीं मेरे भीतर और बाहर भी तुम्हीं हो। तुम्हीं मेरे सर्वस्व हो। मेरे सर्वस्व तुम्हीं तो हो।

प्रेम और प्यार के साँसारिक नाते-रिश्ते मेरे लिये क्या है? मैं संसार के लिये क्या हूँ? हाड़-माँस का पुतला। उससे लोग कितना चाहते हैं। मैं सब निकली है, उसे तुम्हारे अतिरिक्त और कौन समझेगा, मेरे प्रियतम! मेरे लिये तुम्हीं सबसे प्रिय हो। सबसे प्रिय संसार में तुम्हीं मेरे लिये हो।

मछली को मैंने जल से बाहर आकर तड़पते देखा! माँ के अगाध वात्सल्य से बाहर आकर तड़पते देखा। माँ के अगाध वात्सल्य से रिक्त होते हुये बालक का करुण क्रन्दन मैंने देखा, 14 वर्ष हो गये वनवासी प्रियतम नहीं आये, उनके प्रेम की पीर में विकल विरहिणी की पीड़ा को मैंने देखा। प्रभु! तुमसे पृथक् होकर मैं भी तो पीड़ाओं के सागर में गिर गया हूँ। मेरी सुनने वाला कोई नहीं रह गया, देवेश! मुझे ते अब अपनी इस पृथकता को देर तक बनाये रखना में खींच लो। मुझे आत्मसात् कर लो प्रभु!

मेरे मन, मेरी बुद्धि, मेरी चेतना में, अब तुम्हारा ही ध्यान शेष हैं। कहने को श्वाँस चल रही है, किन्तु यह मुझे ऊपर उठाया लिये जा रही है। नीले आकाश में जहाँ हे दिव्य! केवल तुम्हारा ही प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा है। जहाँ केवल तुम्हीं अपने अनहद नाद से विश्व भुवन में मधुर संगीत आलोड़ित कर रहे हो। अब यह श्वाँस जो तुम्हारी दिव्य-ध्वनि में अटक गई है, पीछे नहीं लौटना चाहती सर्वेश्वर! अब इसे पीछे न लोटने दो, महाभाग! कौन जाने फिर तुम्हारी कृपा की किरण मिले या न मिले।

विचार मन्थन की प्रक्रिया में कष्ट उठाते बहुत दिन हो गये प्रभु। एक दिन मुझे ऐसा लगा था, संसार में केवल तुम्हीं सत्य हो। उस दिन मेरे जीवन की चन्द श्वाँसें तुम्हें ही समर्पित हो गई थीं। उस दिन से तुम्हारा दिया ही खाया, जो तुमने पिलाया पिया। अमृत भी, विष भी। कामनायें कभी मिटी, कभी भड़की तुमने कई बार बहुत समीप आकर मुझ व्यथित को संभाला। कई बार पुकार पर पुकार लगाई पर तुम मेरे द्वारा तक भी न आये। कभी एक क्षण के लिये भी आ जाते तो ऐसा ड़ड़ड़ड़ जीवर परिपूर्ण हो गया। एक पल की अनुभूति से ही हृदय कमल खिल उठता था, सुख की खोज के लिए ड़ड़ड़ड़ की तरह उड़ते मन की डोर टूट जाती और लगता, मुक्त में, तुम में कोई अन्तर नहीं रह गया। जो तुम, सौ में। किन्तु अगले ही क्षण कौन-सा पर्दा डाल देते हो, जो तुम एक तरफ और मैं दूसरी ओर खड़ा ताकता रह जाता हूँ। अतीत की सुधियों में खोये मन को विश्राम दो प्रभु! अब मुझ में और अधिक प्रतीक्षा की शक्ति शेष नहीं रही है। मेरी आँखें तुम्हें अपलक ढूँढ़ते थक गई हैं।

मैं अपने लिये अलग क्या हूँ। मैं तो तुमसे अलग हूँ भी नहीं। मुझमें तुम्हीं तो सुनते हो, मैंने देखा ही कब, यह तुम्हीं तो मेरी आँखों के भीतर बस कर देखते हो। मुझे क्यों दोष देते हो प्रभ्रुवर। मैंने इच्छा ही क्या की। तुम मेरे भीतर बैठकर नाना प्रकार की इच्छाएँ न जगाते तो मुझे क्या आवश्यकता थी, जो मैं संसार में भटकता। जो कुछ भी है, अच्छा या बुरा तुम्हारा ही हैं। अब मुझे इस प्रपंच में पड़कर रहा नहीं जाता, मेरे सर्वस्व! जो कुछ भी है, तुम्हारा है, सो तुम ले लो। अपना दिया हुआ सब वापस कर लो।

पीड़ाओं के सागर से निकल कर यों ही मैं एक दिन ध्यानावस्थित होकर प्रभु से अनवरत पुकार किये चला जा रहा था। वहाँ मेरे अतिरिक्त एक दूर-दूर तक निर्जन पृथ्वी थी और उसे ड़ड़ड़ड़ में भरता हुआ शुभ्र नीलाकाश। समस्त बहिर्मुखी चित्त-वृत्तियों को मैंने समेट कर अपने भीतर भर लिया था, यों कहें मैं अपने हृदय की गुफा में आ बैठा था और उसमें बैठा-बैठा उस परम ज्योति के दर्शन कर रहा था, जो इतने समीप थी, जितना मेरा हृदय और इतनी दूर कि उसे अनन्त आकाश की विशाल बाहों से भी स्पर्श करना मेरे लिये कठिन हो रहा था। मैं निरन्तर उन पावन-ज्योति परमात्मा का भजन कर रहा था। उनके भजन में मैं संसार की सुध-बुध खो बैठा था।

हे प्रभु! मुझे क्या पता तुम दोष रहित हो, ड़ड़ड़ड़ हो या सर्वथा विकार-ग्रस्त और गुणहीन। तुम प्रकृति हो या प्रकाश, निर्मल हो या मलीन मुझे तो एक दृष्टि में तुम ही तुम दिखाई दे रहे हो, तुम्हारी ही सत्ता सारे जग में समा रही है, तुम्हीं फूलों में हँस रही हो, पत्तों में डोल रहे हो। वनस्पतियों का रस और हरीतिमा भी तुम्हीं हो, सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों की चमक तुम्हीं हो, बादलों की गरज, विद्युत की चमक, मेघों का वर्षण, नक्षत्रों की गति, सब कुछ तुम्हीं हो, यह संसार तुम्हीं में सभा रहा है या तुम्हीं संसार में समा रहे हो।

तुमसे बढ़कर सुन्दरतम, रूपराशि वाला मैंने और नहीं देखा, तुम से महान् और नहीं पाया तुम्हारी जैसी करुणा तो सम्राटों के हृदय में भी नहीं देखी। पृथ्वी से भी अधिक क्षमाशील और जननी से भी बढ़कर वात्सल्य का प्रवाह भेजने वाले प्रियतम! तुम्हारे अतिरिक्त और मुझे कुछ सूझ नहीं रहा। यदि मैं किसी और का गुणगान करूँ, किसी और को देखूँ, किसी और की सुनूँ तो मेरे जीवन! में आँखें न रहें, कान न रहें, जिह्वा न रहे प्रभु! तुम्हारे प्रेम की चाह लेकर तुम्हारे द्वार पड़ा हूँ। मेरे जीवन धन! ठुकरा दो अथवा प्यार करो, अब मेरे लिए और कहीं ठौर भी तो नहीं है।

हे प्रभु! मेरा जीवन तुम्हें समर्पित है। अब मैं कहीं भी रहूँ, कैसे भी रहूँ। दुःख मिले या सुख तेरा प्रेम तो निबाहूँगा ही। मेरे मन में अब सांसारिकता की चाह नहीं रही। स्वर्ग मिले या मुक्ति, नरक मिले या पुनर्भव मुझे उसकी भी चिन्ता नहीं है, प्रभु तुम्हें पाकर अब मुझे और कुछ पाने की कामना शेष नहीं रही। हे प्रभु! तुम्हारा ही प्यार, तुम्हारा ही नाम, तुम्हारा ही भजन मेरे शरीर, मन और आत्मा में छाया रहे। हे मेरे जीवन-आधार मुझ पर तुम्हारा पूर्ण अधिकार रहे, तुम मुझ पर पूर्ण अधिकार रखना।


अखण्ड  ज्योति  अक्टूबर  1969

निर्भयता ही अपराजेय है...Sadhu or Sikandar ka durlabh prasang

निर्भयता अपराजेय है

आप सब कहाँ जा रहे हैं, पंचनद के ये बहुमूल्य घोड़े हाथी खजाना किसकी भेंट के लिए जा रहा है? साधुओं में से एक ने सेनापति से पूछा। सैनिकों के बुझे चेहरे, सेनापति का मलिन मुख, सेना की यह मौन यात्रा सब कुछ विचित्र लगा। कहाँ तो पंचनद की विलय-वाहिनी रण-वाद्यों का घोष करते हुए निकला करती थी, चारों ओर विजय का उल्लास फलता दिखता था। और आज..................?

कोई आगे कुछ सोचे, इसके पहले-महासेनापति ने कातर स्वर से कहा- भगवान्! महाराज देवदर्शन की आज्ञा से हम सिकन्दर के लिए सन्धि प्रस्ताव लेकर जा रहे हैं। सैनिकों की इच्छा के विरोध में महाराज का असामयिक निर्णय जँचा नहीं पर हम विवश हैं, क्या करें?

साधुजन तड़प उठे, बोले-यह तुम आर्यावर्त के एक-सेनाधिपति बोल रहे हो। विवशता कायरों का शब्द है। उसे मुख पर लाने से पहले तुमने राजद्रोह कर दिया होता-तो तुम यशस्वी होते, सैनिक। संख्या नहीं समर्थता विजय पाती है। तुम यह न भूलों कि हमारे देश के नागरिक संयमित और सदाचारी जीवन यापन करते हैं। इसलिए उनकी शक्ति का लोहा लेना सिकन्दर के लिए भी कठिन है। पराधीन जीवन जीने से पहले तुम शहीद हो गए होते तो देश के मस्तक पर कलंक का टीका लगने का अवसर तो न आता। जाओ-जब तक इस देश का ब्राह्मण जीवित है, तब तक राज्य पराजय स्वीकार नहीं कर सकता। तुम यह उपहार लेकर लौट जाओ। सिकन्दर से सन्धि नहीं युद्ध होगा, और यह निमंत्रण हम लेकर जाएँगे।

सेनापति-सैनिकों की टुकड़ी के साथ लौट गए। सभी को जैसे मन माँगी मुराद मिली। उन सबका दमित शौर्य उल्लास बनकर चेहरों पर चमकने लगा। एक साधु सिकन्दर को युद्ध की चुनौती देने चला, शेष ने प्रजाशक्ति को जाग्रत करना-प्रारम्भ किया। देखते ही देखते जन शक्ति हथियार बाँधकर खड़ी हो गई। देवदर्शन को भी अब युद्ध के अतिरिक्त कोई मार्ग न-दिखा। सारे राज्य में रण-भेरी बजने लगी।

साधु सिकन्दर को सन्धि के स्थान पर युद्ध का निमन्त्रण दे इससे पूर्व गुप्तचर ने सारी बात उस तक पहुँचा दी। यूनान-सम्राट क्रोधित हो उठा। उसने साधु के वहाँ पहुँचने से पूर्व ही बन्दी बनाकर कारागार में डलवा दिया। उसके बाद अन्य तीन साधुओं को भी उसने छलपूर्वक पकड़वा मँगाया।

अगले दिन सिकन्दर का दरबार सजाया गया। ऐश्वर्य प्रदर्शन के सारे सरंजाम इकट्ठे थे। सर्वप्रथम बन्दी बनाए गए साधु की प्रशंसा करते हुए सम्राट ने कूटनीतिक दाँव फेंकते हुए कहा- आखर्य! आप इन सबमें वीर और विद्वान हैं। आप हमारे निर्णायक नियुक्त हुए। शेष तीन साधुजनों से हम तीन प्रश्न करेंगे, इनके उत्तर आप सुनें।

एक साधु की ओर संकेत करते हुए सिकन्दर ने प्रश्न किया-तुमने देवदर्शन की प्रजा को विद्रोह के लिए क्यों भड़काया? इसलिए कि हमारा धर्म, हमारी संस्कृति की सुरक्षा, हमारे स्वाभिमान से अनुबद्ध है। इस देश के नागरिक स्वाभिमान का परित्याग करने की अपेक्षा मर जाना अच्छा समझते हैं। देश की रक्षा हमारे धर्म है।

सिकन्दर ने दूसरा प्रश्न किया- जीवन और मृत्यु में अधिक श्रेष्ठ कौन है?

दोनों- साधु ने उत्तर दिया। जब तक कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी भय न व्यापता हो, जीवन श्रेष्ठ है। किन्तु दुष्कर्म करने से पहले मृत्यु हो जाय तो वह जीवन से अच्छी।

संसार में जीवित मनुष्य अधिक हैं या मृतक?

सिकन्दर का तीसरा प्रश्न था।

जीवित तीसरे साधु ने उत्तर दिया। मृत्यु तो क्षणिक-दुर्घटना मात्र है। जिसके बाद या तो जीवन रहता ही नहीं या रहता है तो भी जीवित आत्माओं की संख्या में ही आता है।

इससे पूर्व सिकन्दर अपना कोई निर्णय दे साधुओं की निडरता देखकर सिकन्दर के सैनिकों ने युद्ध करने से इनकार कर दिया।

वातावरण में एक पल को घनीभूत हो गई स्तब्धता। पर आघात करते हुए प्रथम साधु दण्डायन ने निर्णय के स्वर में कहा-निर्भयता-अपराजेय है। वह और उसके तीनों शिष्य एक ओर चल पड़े। आपे सैनिकों के हठ भरे आग्रह के सामने झुककर सिकन्दर लौट चलने की व्यवस्था बना रहा था।

।।श्री राधे।।

 Source- अखंड ज्योति फरवरी 1993

संत दर्शन का फल...Krishna katha... bhakt charno ki mahima

------ कृष्ण कथा ------

एक जंगल में एक संत, अपनी कुटिया में रहते थे।
एक किरात (शिकारी) जब भी वहाँ से निकलता,
संत को प्रणाम जरूर करता था।

एक दिन किरात संत से बोला- मैं तो मृग का शिकार करता हूँ,
आप किसका शिकार करने जंगल में बैठे हैं?

संत बोले- श्री कृष्ण का।
और रोने लगे।

तब किरात बोला- अरे बाबा! रोते क्यों हो?
मुझे बताओ! वो दिखता कैसा है?
मैं पकड़ के लाऊंगा उसको।

संत ने भगवान का स्वरुप बताया,
कि वो सांवला है, मोर पंख लगाता है और बांसुरी बजाता है।

किरात बोला- बाबा! जब तक मैं आपका शिकार पकड़कर नहीं लाता,
मैं पानी तक नहीं पियूँगा।

फिर वो किरात, एक जगह जाल बिछा कर बैठ गया।

तीन दिन बीत गए प्रतीक्षा करते हुए।
भगवान को दया आ गयी और वो बांसुरी बजाते हुए आ गए,
और खुद ही जाल में फंस गए।

किरात चिल्लाने लगा- शिकार मिल गया, शिकार मिल गया।
अच्छा बच्चू! तीन दिन तक भूखा-प्यासा रखा।
अब जा कर मिले हो।

किरात ने कृष्ण को शिकार की भांति अपने कंधे पे डाला,
और संत के पास ले गया।
बोला- बाबा! आपका शिकार लाया हूं।

बाबा ने जब ये दृश्य देखा,
कि किरात के कंधे पे श्री कृष्ण हैं और जाल में से मुस्कुरा रहे हैं,
संत चरणों में गिर पड़े।
फिर ठाकुर से बोले- मैंने बचपन से घर बार छोड़ा पर आप नहीं मिले।
और इसे तीन दिनों में ही मिल गए, ऐसा क्यों?

भगवान बोले- इसने तुम्हारा आश्रय लिया,
इसलिए इसे तीन दिन में दर्शन हो गए।

------ अर्थात ------
भगवान पहले उस पर कृपा करते हैं,
जो उनके दासों के चरण पकड़े होता है।

किरात को पता भी नहीं था कि भगवान कौन हैं,
पर संत को रोज प्रणाम करता था।

संत प्रणाम और दर्शन का फल ये है,
कि तीन दिनों में ही किरात को ठाकुर (भगवान) मिल गए।

------ संत मिलन को जाईये ------
------ तजि ममता अभिमान ------
------ ज्यों-ज्यों पग आगे बढ़े ------
------ कोटिन्ह यज्ञ समान ------

जब भगवान ने अपने भक्त को दी मुखाग्नि adhvut prasang

एक संत थे और अपने ठाकुर "श्रीगोपीनाथ" की तन्मय होकर सेवा-अर्चना करते थे। उन्होंने कोई शिष्य नहीं बनाया था परन्तु उनके सेवा-प्रेम के वशीभूत होकर कुछ भगवद-प्रेमी भक्त उनके साथ ही रहते थे। कभी-कभी परिहास में वे कहते कि -"बाबा ! जब तू देह छोड़ देगो तो तेरो क्रिया-कर्म कौन करेगो?"
बाबा सहज भाव से उत्तर देते कि -"कौन करेगो? जेई गोपीनाथ करेगो ! मैं जाकी सेवा करुँ तो काह जे मेरो संस्कार हू नाँय करेगो !"
समय आने पर बाबा ने देह-त्याग किया। उनके दाह-संस्कार की तैयारियाँ की गयीं। चिता पर लिटा दिया गया। अब भगवद-प्रेमी भक्तों ने उनके अति-प्रिय, निकटवर्ती एक किशोर को अग्नि देने के लिये पुकारा तो वह वहाँ नहीं था तो कुछ लोग उसे बुलाने गाँव गये परन्तु वह न मिला, इसके बाद दूसरे की खोज हुयी और वह भी न मिला। संध्या होने लगी थी, लोग प्रतीक्षा कर रहे थे कि वह किशोर शीघ्र आवे तो संस्कार संपन्न हो। अचानक प्रतीत हुआ कि किसी किशोर ने चिता की परिक्रमा कर उसमें अग्नि लगा दी। बाबा की देह का अग्नि-संस्कार होने लगा। दाह-संस्कार करने वाले को श्वेत सूती धोती और अचला [अंगोछा] धारण कराया जाता है सो भगवद-प्रेमियों ने उनके निकटवर्ती किशोर का नाम लेकर पुकारा ताकि उसे वस्त्र दिये जा सकें। किन्तु वह किशोर तो वहाँ था ही नहीं। सब एकत्रित हुए, आपस में पूछा कि किसने दाह-संस्कार किया परन्तु किसी के पास कोई उत्तर न था। संभावना व्यक्त की गयी कि कदाचित वायुदेव ने इस कार्य में सहायता की सो उन श्वेत वस्त्रों को उस चिता में ही डाल दिया गया। सब लौट आये।
प्रात: ठाकुर श्रीगोपीनाथ का मंदिर, मंगला-आरती के लिये खोला गया और क्या अदभुत दृष्य है ! ठाकुर गोपीनाथ श्वेत सूती धोती को ही धारण किये हुए हैं और उनके कांधे पर अचला पड़ा है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई वस्त्र अथवा श्रंगार नहीं है। नत-मस्तक हो गये सभी। भक्त और भगवान ! कैसा अदभुत प्रेम ! कैसा अदभुत विश्वास ! एक-दूसरे को कैसा समर्पण ! जय हो-जय हो से समस्त प्रांगण गुँजायमान हो गया।
हे मेरे श्यामा-श्याम ! दास की भी यही आपसे प्रार्थना है। दास के पास देने को वैसा प्रेम और समर्पण तो नहीं है परन्तु आप तो सर्व-शक्तिमान और परम कृपालु प्रेमी हैं और दास का प्रेम-समर्पण भले ही न हो परन्तु विश्वास में तो आपकी कृपा से कोई न्यूनता नहीं है। तो हे प्रभु ! समय आने पर एक बार फ़िर ........।
जय जय श्री राधे !

नवधा भक्ति...video spritual lecturers on Devine navadha bhakti by SHREE HIT AMBARISHJI MAHARAJ

Source- youtube/hit ras dhara

नवधा भक्ति भाग 1

आज हम अपने हरिदर्शन में भक्ति की एक नई श्रृंखला का सूत्रपात कर रहे हैं। हरि को रिझाने वाली उनकी नवधा का सम्यक प्रकार से वर्णन हम हमारे पूज्य श्री गुरुदेव जी की पावन अमृतमई में वाणी में श्रवण करेंगे।
 आज से प्रतिदिन जिस श्रंखला का एक वीडियो हमारे ब्लॉग पर पब्लिश किया जाएगा 

कर्म प्रधान विश्व करि राखा... karm yog ki mahima

एक बार एक भक्त धनी व्यक्ति मंदिर जाता है।
   पैरों में महँगे और नये जूते होने पर सोचता है कि क्या करूँ?
यदि बाहर उतार कर जाता हूँ तो कोई उठा न ले जाये और अंदर पूजा में मन भी नहीं लगेगा; सारा ध्यान् जूतों पर ही रहेगा।

उसे मंदिर के बाहर एक भिखारी बैठा दिखाई देता है। वह धनी व्यक्ति भिखारी से कहता है " भाई मेरे जूतों का ध्यान रखोगे? जब तक मैं पूजा करके वापस न आ जाऊँ" भिखारी हाँ कर देता है।

अंदर पूजा करते समय धनी व्यक्ति सोचता है कि " हे प्रभु आपने यह कैसा असंतुलित संसार बनाया है?
 किसी को इतना धन दिया है कि वह पैरों तक में महँगे जूते पहनता है तो किसी को अपना पेट भरने के लिये भीख तक माँगनी पड़ती है!
कितना अच्छा हो कि सभी एक समान हो जायें!!
 "वह धनिक निश्चय करता है कि वह बाहर आकर उस भिखारी को 100 का एक नोट देगा।

बाहर आकर वह धनी व्यक्ति देखता है कि वहाँ न तो वह भिखारी है और न ही उसके जूते।
धनी व्यक्ति ठगा सा रह जाता है। वह कुछ देर भिखारी का इंतजार करता है कि शायद भिखारी किसी काम से कहीं चला गया हो, पर वह नहीं आया। धनी व्यक्ति दुखी मन से नंगे पैर घर के लिये चल देता है।

रास्ते में थोड़ी दूर फुटपाथ पर देखता है कि एक आदमी जूते चप्पल बेच रहा है।
धनी व्यक्ति चप्पल खरीदने के उद्देश्य से वहाँ पहुँचता है, पर क्या देखता है कि उसके जूते भी वहाँ बेचने के लिए रखे हैं।
तो वह अचरज में पड़ जाता है फिर वह उस फुटपाथ वाले पर दबाव डालकर उससे जूतों के बारे में पूछता हो वह आदमी बताता है कि एक भिखारी उन जूतों को 100 रु. में बेच गया है।

धनी व्यक्ति वहीं खड़े होकर कुछ सोचता है और मुस्कराते हुये नंगे पैर ही घर के लिये चल देता है। उस दिन धनी व्यक्ति को उसके सवालों के जवाब मिल गये थे----

समाज में कभी एकरूपता नहीं आ सकती,
क्योंकि हमारे कर्म कभी भी एक समान नहीं हो सकते।
और जिस दिन ऐसा हो गया उस दिन समाज-संसार की सारी विषमतायें समाप्त हो जायेंगी।
 ईश्वर ने हर एक मनुष्य के भाग्य में लिख दिया है कि किसको कब और कितना मिलेगा, पर यह नहीं लिखा कि वह कैसे मिलेगा।
 यह हमारे कर्म तय करते हैं।
जैसे कि भिखारी के लिये उस दिन तय था कि उसे 100 रु. मिलेंगे, पर कैसे मिलेंगे यह उस भिखारी ने तय किया।
हमारे कर्म ही हमारा भाग्य, यश, अपयश, लाभ, हानि, जय, पराजय, दुःख, शोक, लोक, परलोक तय करते हैं।
हम इसके लिये ईश्वर को दोषी नहीं ठहरा सकते हैं।

श्री राधा कृपा कटाक्ष ( Shree Radha kripa kataksha)

मुनीन्दवृन्दवन्दिते त्रिलोकशोकहारिणी, प्रसन्नवक्त्रपंकजे निकंजभूविलासिनी।
व्रजेन्दभानुनन्दिनी व्रजेन्द सूनुसंगते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१)

भावार्थ : समस्त मुनिगण आपके चरणों की वंदना करते हैं, आप तीनों लोकों का शोक दूर करने वाली हैं, आप प्रसन्नचित्त प्रफुल्लित मुख कमल वाली हैं, आप धरा पर निकुंज में विलास करने वाली हैं। आप राजा वृषभानु की राजकुमारी हैं, आप ब्रजराज नन्द किशोर श्री कृष्ण की चिरसंगिनी है, हे जगज्जननी श्रीराधे माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१)

अशोकवृक्ष वल्लरी वितानमण्डपस्थिते, प्रवालज्वालपल्लव प्रभारूणाङि्घ् कोमले।
वराभयस्फुरत्करे प्रभूतसम्पदालये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (२)

भावार्थ : आप अशोक की वृक्ष-लताओं से बने हुए मंदिर में विराजमान हैं, आप सूर्य की प्रचंड अग्नि की लाल ज्वालाओं के समान कोमल चरणों वाली हैं, आप भक्तों को अभीष्ट वरदान, अभय दान देने के लिए सदैव उत्सुक रहने वाली हैं। आप के हाथ सुन्दर कमल के समान हैं, आप अपार ऐश्वर्य की भंङार स्वामिनी हैं, हे सर्वेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (२)

अनंगरंगमंगल प्रसंगभंगुरभ्रुवां, सुविभ्रम ससम्भ्रम दृगन्तबाणपातनैः।
निरन्तरं वशीकृत प्रतीतनन्दनन्दने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (३)

भावार्थ : रास क्रीड़ा के रंगमंच पर मंगलमय प्रसंग में आप अपनी बाँकी भृकुटी से आश्चर्य उत्पन्न करते हुए सहज कटाक्ष रूपी वाणों की वर्षा करती रहती हैं। आप श्री नन्दकिशोर को निरंतर अपने बस में किये रहती हैं, हे जगज्जननी वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (३)

तड़ित्सुवणचम्पक प्रदीप्तगौरविगहे, मुखप्रभापरास्त-कोटिशारदेन्दुमण्ङले।
विचित्रचित्र-संचरच्चकोरशावलोचने, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (४)

भावार्थ : आप बिजली के सदृश, स्वर्ण तथा चम्पा के पुष्प के समान सुनहरी आभा वाली हैं, आप दीपक के समान गोरे अंगों वाली हैं, आप अपने मुखारविंद की चाँदनी से शरद पूर्णिमा के करोड़ों चन्द्रमा को लजाने वाली हैं। आपके नेत्र पल-पल में विचित्र चित्रों की छटा दिखाने वाले चंचल चकोर शिशु के समान हैं, हे वृन्दावनेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (४)

मदोन्मदातियौवने प्रमोद मानमणि्ते, प्रियानुरागरंजिते कलाविलासपणि्डते।
अनन्यधन्यकुंजराज कामकेलिकोविदे कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (५)

भावार्थ : आप अपने चिर-यौवन के आनन्द के मग्न रहने वाली है, आनंद से पूरित मन ही आपका सर्वोत्तम आभूषण है, आप अपने प्रियतम के अनुराग में रंगी हुई विलासपूर्ण कला पारंगत हैं। आप अपने अनन्य भक्त गोपिकाओं से धन्य हुए निकुंज-राज के प्रेम क्रीड़ा की विधा में भी प्रवीण हैं, हे निकुँजेश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (५)

अशेषहावभाव धीरहीर हार भूषिते, प्रभूतशातकुम्भकुम्भ कुमि्भकुम्भसुस्तनी।
प्रशस्तमंदहास्यचूणपूणसौख्यसागरे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (६)

भावार्थ : आप संपूर्ण हाव-भाव रूपी श्रृंगारों से परिपूर्ण हैं, आप धीरज रूपी हीरों के हारों से विभूषित हैं, आप शुद्ध स्वर्ण के कलशों के समान अंगो वाली है, आपके पयोंधर स्वर्ण कलशों के समान मनोहर हैं। आपकी मंद-मंद मधुर मुस्कान सागर के समान आनन्द प्रदान करने वाली है, हे कृष्णप्रिया माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (६)

मृणालबालवल्लरी तरंगरंगदोलते, लतागलास्यलोलनील लोचनावलोकने।
ललल्लुलमि्लन्मनोज्ञ मुग्ध मोहनाश्रये, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (७)

भावार्थ : जल की लहरों से कम्पित हुए नूतन कमल-नाल के समान आपकी सुकोमल भुजाएँ हैं, आपके नीले चंचल नेत्र पवन के झोंकों से नाचते हुए लता के अग्र-भाग के समान अवलोकन करने वाले हैं। सभी के मन को ललचाने वाले, लुभाने वाले मोहन भी आप पर मुग्ध होकर आपके मिलन के लिये आतुर रहते हैं ऎसे मनमोहन को आप आश्रय देने वाली हैं, हे वृषभानुनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (७)

सुवर्ण्मालिकांचिते त्रिरेखकम्बुकण्ठगे, त्रिसुत्रमंगलीगुण त्रिरत्नदीप्तिदीधिअति।
सलोलनीलकुन्तले प्रसूनगुच्छगुम्फिते, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (८)

भावार्थ : आप स्वर्ण की मालाओं से विभूषित है, आप तीन रेखाओं युक्त शंख के समान सुन्दर कण्ठ वाली हैं, आपने अपने कण्ठ में प्रकृति के तीनों गुणों का मंगलसूत्र धारण किया हुआ है, इन तीनों रत्नों से युक्त मंगलसूत्र समस्त संसार को प्रकाशमान कर रहा है। आपके काले घुंघराले केश दिव्य पुष्पों के गुच्छों से अलंकृत हैं, हे कीरतिनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (८)

नितम्बबिम्बलम्बमान पुष्पमेखलागुण, प्रशस्तरत्नकिंकणी कलापमध्यमंजुले।
करीन्द्रशुण्डदण्डिका वरोहसोभगोरुके, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष भाजनम्॥ (९)

भावार्थ : आपका उर भाग में फूलों की मालाओं से शोभायमान हैं, आपका मध्य भाग रत्नों से जड़ित स्वर्ण आभूषणों से सुशोभित है। आपकी जंघायें हाथी की सूंड़ के समान अत्यन्त सुन्दर हैं, हे ब्रजनन्दनी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (९)

अनेकमन्त्रनादमंजु नूपुरारवस्खलत्, समाजराजहंसवंश निक्वणातिग।
विलोलहेमवल्लरी विडमि्बचारूचं कमे, कदा करिष्यसीह मां कृपा-कटाक्ष-भाजनम्॥ (१०)

भावार्थ : आपके चरणों में स्वर्ण मण्डित नूपुर की सुमधुर ध्वनि अनेकों वेद मंत्रो के समान गुंजायमान करने वाले हैं, जैसे मनोहर राजहसों की ध्वनि गूँजायमान हो रही है। आपके अंगों की छवि चलते हुए ऐसी प्रतीत हो रही है जैसे स्वर्णलता लहरा रही है, हे जगदीश्वरी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (१०)

अनन्तकोटिविष्णुलोक नमपदमजाचिते, हिमादिजा पुलोमजा-विरंचिजावरप्रदे।
अपारसिदिवृदिदिग्ध -सत्पदांगुलीनखे, कदा करिष्यसीह मां कृपा -कटाक्ष भाजनम्॥ (११)

भावार्थ : अनंत कोटि बैकुंठो की स्वामिनी श्रीलक्ष्मी जी आपकी पूजा करती हैं, श्रीपार्वती जी, इन्द्राणी जी और सरस्वती जी ने भी आपकी चरण वन्दना कर वरदान पाया है। आपके चरण-कमलों की एक उंगली के नख का ध्यान करने मात्र से अपार सिद्धि की प्राप्ति होती है, हे करूणामयी माँ! आप मुझे कब अपनी कृपा दृष्टि से कृतार्थ करोगी ? (११)

मखेश्वरी क्रियेश्वरी स्वधेश्वरी सुरेश्वरी, त्रिवेदभारतीयश्वरी प्रमाणशासनेश्वरी।
रमेश्वरी क्षमेश्वरी प्रमोदकाननेश्वरी, ब्रजेश्वरी ब्रजाधिपे श्रीराधिके नमोस्तुते॥ (१२)

भावार्थ : आप सभी प्रकार के यज्ञों की स्वामिनी हैं, आप संपूर्ण क्रियाओं की स्वामिनी हैं, आप स्वधा देवी की स्वामिनी हैं, आप सब देवताओं की स्वामिनी हैं, आप तीनों वेदों की स्वामिनी है, आप संपूर्ण जगत पर शासन करने वाली हैं। आप रमा देवी की स्वामिनी हैं, आप क्षमा देवी की स्वामिनी हैं, आप आमोद-प्रमोद की स्वामिनी हैं, हे ब्रजेश्वरी! हे ब्रज की अधीष्ठात्री देवी श्रीराधिके! आपको मेरा बारंबार नमन है। (१२)

इतीदमतभुतस्तवं निशम्य भानुननि्दनी, करोतु संततं जनं कृपाकटाक्ष भाजनम्।
भवेत्तादैव संचित-त्रिरूपकमनाशनं, लभेत्तादब्रजेन्द्रसूनु मण्डलप्रवेशनम्॥ (१३)

भावार्थ : हे वृषभानु नंदिनी! मेरी इस निर्मल स्तुति को सुनकर सदैव के लिए मुझ दास को अपनी दया दृष्टि से कृतार्थ करने की कृपा करो। केवल आपकी दया से ही मेरे प्रारब्ध कर्मों, संचित कर्मों और क्रियामाण कर्मों का नाश हो सकेगा, आपकी कृपा से ही भगवान श्रीकृष्ण के नित्य दिव्यधाम की लीलाओं में सदा के लिए प्रवेश हो जाएगा। (१३)

श्रीमद्भागवत में श्री राधा रानी का प्रत्यक्ष कथा चिंतन क्यों नही है

।।हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। विद्वान और पंडित लोग कहते हैं जिस समाधि भाषा में भागवत लिख...