श्रीमद्भागवत में श्री राधा रानी का प्रत्यक्ष कथा चिंतन क्यों नही है

।।हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

विद्वान और पंडित लोग कहते हैं जिस समाधि भाषा में भागवत लिखी गई और जब राधाजी का प्रवेश हुआ तो व्यासजी इतने डूब गए कि राधा चरित लिख ही नहीं सके.

सच तो यह है कि ये जो पहले श्लोक में वंदना की गई इसमें श्रीकृष्णायमें श्री का अर्थ है कि राधाजी को नमन किया गया.शुकदेव जी पूर्व जन्म में राधा जी की निकुंज के शुक थे.

निकुंज में गोपियों के साथ परमात्मा क्रीडा करते थे, शुकदेव जी सारे दिन श्री राधे-राधे कहते थे.

यह सुनकर श्री राधे ने हाथ उठाकर तोते को अपनी ओर बुलाया तोता आकर राधा जी के चरणों कि वंदना करता है.

वे उसे उठाकर अपने हाथ में ले लेती है तोता फिर श्री राधे , श्री राधे बोलने लगा. राधा जी ने कहा – कि अब तू राधे-राधे न कहकर कृष्ण-कृष्ण कह- राधेतिमा वद –कृष्ण कृष्ण बोल.

इस प्रकार राधा जी तोते को समझा रही थी.उसी समय कृष्ण वहाँ आ जाते है राधा जी ने उनसे कहा – कि ये तोता कितना मधुर बोलता है ओर उसे ठाकुर जी के हाथ मेंदे दिया.

इस प्रकार श्री राधा जी ने शुकदेव जी का ब्रह्मके साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध कराया.

इसलिए शुकदेव जी कि सद्गुरु श्री राधा जी है और सद्गुरु होने के कारण भागवतमें राधा जी का नाम नहीं लियाशुकदेव जी ने अपने मुख से राधा अर्थात अपने गुरु का नाम नहीं लिया,

और दूसरा कारण राधा शब्द भागवत में ना आने का कारण है किजब शुकदेव जी यदि राधा शब्द ले भी लेते तो वे उसी पल राधा जी के भाव में इतने डूब जाते कि पता नहीं कितने दिनों तक उस भाव से बाहर ही नहीं आ पाते ऐसे में राजा परीक्षित के पास तो केवल सात दिन ही थे फिर भागवत कि कथाकैसे पूरी होती.

जब राधाजी से कृष्णजी ने पूछा कि इस साहित्य में तुम्हारी क्या भूमिका होगी. तो राधाजी ने कहा मुझे कोई भूमिका नहीं चाहिए मैं तो आपके पीछे हूं.

इसलिए कहा गया कि कृष्ण देह हैं तो राधा आत्मा हैं. कृष्ण शब्द हैं तो राधा अर्थ हैं, कृष्ण गीत हैं तो राधा संगीत हैं, कृष्ण वंशी हैं तो राधा स्वर हैं, कृष्ण समुद्र है तो राधा तरंग हैं और कृष्ण फूल हैं तो राधा उसकी सुगंध हैं.

इसलिए राधाजी इसमें अदृश्य रही हैं. राधा कहीं दिखती नही है इसलिए राधाजी को इस रूप में नमन किया. जब हम दसवें, ग्यारहवें स्कंध में पहुंचेंगे, पांचवें, छठे, सातवें दिन तब हम राधाजी को याद करेंगे.

पर एक बार बड़े भाव से स्मरण करें राधे-राधे. ऐसा बार-बार बोलते रहिएगा राधा-राधा आप बोलें और अगर आप उल्टा भी बोलें तो वह धाराहो जाता है और धारा को अंग्रेजी में बोलते हैं करंट. भागवत का करंट ही राधा है.

आपके भीतर संचार भाव जाग जाए वह राधा है.जिस दिन आंख बंद करके आप अपने चित्त को शांत कर लें उस शांत स्थिति का नाम राधा है.

यदि आप बहुत अशांत हो अपने जीवन में तो मन में राधे-राधे….. बोलिए आप पंद्रह मिनट में शांत हो जाएंगे क्योंकि राधा नाम में वह शक्ति है.

भगवान ने अपनी सारी संचारी शक्ति राधा नाम में डाल दी. इसलिए भागवत में राधा शब्द हो या न हो राधाजी अवश्य विराजी हुई हैं.

जय प्रभुपाद
हमेशा हरे कृष्ण महामंत्र जपते रहो
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे
जय जय श्री राधे कृष्ण


इस ब्लॉग पर प्रसारित भगवत वार्ता मेरी स्वयं के द्वारा न तो रचित है नही मेरे द्वारा प्रयास से संग्रहित है। ये सब तो प्रभु प्रेमी रसिको के भाव की उच्छिष्ट को लेकर में आपके समक्ष रख रहा हूँ।


।।राधे राधे।।

क्या भगवान को मेरी परवाह है

🌷 *क्या भगवान् को मेरी परवाह है?*🌷

जब हमारा जीवन अनेक दु:खों एवं परेशानियों के थपेड़ों की चपेट में अा जाता है अौर दु:खों की अाँधी रुकने का नाम ही नहीं लेती तो हमारे मन में प्रश्न उठता है…

क्या भगवान् को मेरी तनिक भी परवाह है या नहीं।

भगवद्गीता के नवे अध्याय के बाईसवे श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण हमें अाशान्वित करते हैं

अनन्याश्र्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ।।

जो भी अनन्य भाव से मेरे रूप का ध्यान करते हुए मेरी अाराधना करते हैं, जो भी उनके पास है मैं उसकी रक्षा करता हूँ अौर जो नहीं है उसे लाकर देता हूँ।

जीवन की किसी भी परिस्थिति में यदि हम श्रीकृष्ण की अोर मुड़ेंगे तो वे हमारा ध्यान अवश्य रखेंगे। वे तो हमारी देखभाल हमेशा ही कर रहे हैं, परमात्मा के रूप में वे हमारे हृदय में विराजमान हैं अौर हमारी सभी इच्छाअों पर निगरानी रख उनका अनुमोदन करते हैं। *इस जगत् की सभी वस्तुएँ जैसे कि फल, फूल, अन्न, जल, वायु, सूर्य की रोशनी, अग्नि इत्यादि सभी उनसे ही तो अाते हैं।*

ये तो हम ही हैं जो अपने स्वार्थी दृष्टिकोण के कारण उनकी उपस्थिति अौर योगदान का अनुभव नहीं कर पाते।

यद्यपि हमारी लगभग सभी महत्वकांक्षायें स्वयं के भोग के लिए होती हैं अौर वे हमें अपने मूल स्वरूप जो कि भगवान् के सेवक बनने से दूर ले जाती हैं किन्तु फिर भी भगवान् हमारी स्वतन्त्रता में दखल नहीं देते अौर चुपचाप हमारी इच्छाअों को मंजूरी देते रहते हैं। उन्हें धन्यवाद देने की जगह हम उन पर अारोप लगाते हैं कि मेरे जीवन में दु:ख अा रहे हैं किन्तु इन दु:खों का अाना तो इस भौतिक जगत् के नियमानुसार ही है, क्योंकि *सम्पूर्ण सृष्टि की समस्त वस्तुएँ भगवान् की सम्पत्ति है अौर उन्हीं के अानंद के लिए बनी हैं* अौर जब भी हम इस भौतिक जगत् की वस्तुअों को भगवान् को अर्पित किए बिना अपने भोग के लिए लेंगे तो वह दु:ख का कारण अवश्य ही बनेगी।

लोग कहते हैं कि भगवान् ने इस भौतिक जगत् के नियम एेसे क्यों नहीं बनाए जिससे कि हम उनके बिना भी सभी वस्तुअों का भोग विलास कर सके अौर कोई दु:ख भी न अाए।

यदि वे एेसा करते तो हम कभी भी उनकी अोर मुड़ने का नाम नहीं लेते, अौर उनकी अोर न मुड़ने का अर्थ है – असीमित शाश्वत् सुख से मुड़ना क्योंकि वे ही परम अानंद के भण्डार हैं। इस भौतिक जगत् के सुख तो उनके संग में प्राप्त सुख के सागर के समक्ष एक बूँद के बराबर भी नहीं हैं।

ये श्रीकृष्ण की असीम कृपा ही तो है कि जब भी हम उनसे विमुख होकर सुखी होने का मिथ्या प्रयास करते हैं, हमारे दु:खों के द्वारा वे हमें उनकी अोर मुड़ने का अवसर प्रदान करते हैं। उनकी हमारी परवाह अौर देखभाल करने का दूसरा रूप ही ये दु:ख हैं। अौर *इन दु:ख भरी परिस्थितियों में यदि हम उनकी अोर मुड़कर हृदय से प्रार्थना करते हुए उन्हें प्रेमपूर्वक स्मरण करेंगे तो अवश्य ही हम उनकी कृपा को अनुभव कर पायेंगे।*

यदि हम किसी व्यक्ति के प्रेम का अनुभव करना चाहते हैं तो हमें अपने बारे में न सोचकर कि मुझे क्या चाहिए, यह भी सोचना होगा कि उस व्यक्ति को क्या चाहिए? अौर जब हम दूसरे व्यक्ति की इच्छाअों को ध्यान में रखेंगे तो ही प्रेम का अादान-प्रदान सम्भव है।

श्रीकृष्ण मैं अापसे प्रेम करता हूँ, अापसे विमुख होकर मैं दु:खों के बवंडर में फँस गया हूँ, अापको स्मरण करने हेतु कृपया मेरी सहायता कीजिए। मुझे अापकी विस्मृति कभी न हो, सुख में या दु:ख में सभी परिस्थितियों में मैं सदैव अापसे प्रेम करता रहूँ।

*यदि एक बार भी श्रीकृष्ण की अोर मुड़कर हम इस नि:सहाय भावना से उन्हें पुकारेंगे तो अपनी चेतना में एक बड़ा परिवर्तन पायेंगे* अौर उनके द्वारा की जाने वाली देखभाल का अनुभव कर पायेंगे।🌷


सआभार किसी रसिक की वाणी  

जीवन आधार परमात्मा ही है

एक तुम्हीं जीवन-आधार

मेरे जीवन का अथ क्या है, इति क्या है, प्रभु! मैं यह भी तान नहीं जानता। मुझे ऐसा लगता है, तुम्हारे जीवन का ही एक अंश लेकर प्रादुर्भूत हुआ, प्राणी मैं केवल तुम्हारा ही हूँ। तुम्हीं मेरे भीतर और बाहर भी तुम्हीं हो। तुम्हीं मेरे सर्वस्व हो। मेरे सर्वस्व तुम्हीं तो हो।

प्रेम और प्यार के साँसारिक नाते-रिश्ते मेरे लिये क्या है? मैं संसार के लिये क्या हूँ? हाड़-माँस का पुतला। उससे लोग कितना चाहते हैं। मैं सब निकली है, उसे तुम्हारे अतिरिक्त और कौन समझेगा, मेरे प्रियतम! मेरे लिये तुम्हीं सबसे प्रिय हो। सबसे प्रिय संसार में तुम्हीं मेरे लिये हो।

मछली को मैंने जल से बाहर आकर तड़पते देखा! माँ के अगाध वात्सल्य से बाहर आकर तड़पते देखा। माँ के अगाध वात्सल्य से रिक्त होते हुये बालक का करुण क्रन्दन मैंने देखा, 14 वर्ष हो गये वनवासी प्रियतम नहीं आये, उनके प्रेम की पीर में विकल विरहिणी की पीड़ा को मैंने देखा। प्रभु! तुमसे पृथक् होकर मैं भी तो पीड़ाओं के सागर में गिर गया हूँ। मेरी सुनने वाला कोई नहीं रह गया, देवेश! मुझे ते अब अपनी इस पृथकता को देर तक बनाये रखना में खींच लो। मुझे आत्मसात् कर लो प्रभु!

मेरे मन, मेरी बुद्धि, मेरी चेतना में, अब तुम्हारा ही ध्यान शेष हैं। कहने को श्वाँस चल रही है, किन्तु यह मुझे ऊपर उठाया लिये जा रही है। नीले आकाश में जहाँ हे दिव्य! केवल तुम्हारा ही प्रकाश प्रस्फुटित हो रहा है। जहाँ केवल तुम्हीं अपने अनहद नाद से विश्व भुवन में मधुर संगीत आलोड़ित कर रहे हो। अब यह श्वाँस जो तुम्हारी दिव्य-ध्वनि में अटक गई है, पीछे नहीं लौटना चाहती सर्वेश्वर! अब इसे पीछे न लोटने दो, महाभाग! कौन जाने फिर तुम्हारी कृपा की किरण मिले या न मिले।

विचार मन्थन की प्रक्रिया में कष्ट उठाते बहुत दिन हो गये प्रभु। एक दिन मुझे ऐसा लगा था, संसार में केवल तुम्हीं सत्य हो। उस दिन मेरे जीवन की चन्द श्वाँसें तुम्हें ही समर्पित हो गई थीं। उस दिन से तुम्हारा दिया ही खाया, जो तुमने पिलाया पिया। अमृत भी, विष भी। कामनायें कभी मिटी, कभी भड़की तुमने कई बार बहुत समीप आकर मुझ व्यथित को संभाला। कई बार पुकार पर पुकार लगाई पर तुम मेरे द्वारा तक भी न आये। कभी एक क्षण के लिये भी आ जाते तो ऐसा ड़ड़ड़ड़ जीवर परिपूर्ण हो गया। एक पल की अनुभूति से ही हृदय कमल खिल उठता था, सुख की खोज के लिए ड़ड़ड़ड़ की तरह उड़ते मन की डोर टूट जाती और लगता, मुक्त में, तुम में कोई अन्तर नहीं रह गया। जो तुम, सौ में। किन्तु अगले ही क्षण कौन-सा पर्दा डाल देते हो, जो तुम एक तरफ और मैं दूसरी ओर खड़ा ताकता रह जाता हूँ। अतीत की सुधियों में खोये मन को विश्राम दो प्रभु! अब मुझ में और अधिक प्रतीक्षा की शक्ति शेष नहीं रही है। मेरी आँखें तुम्हें अपलक ढूँढ़ते थक गई हैं।

मैं अपने लिये अलग क्या हूँ। मैं तो तुमसे अलग हूँ भी नहीं। मुझमें तुम्हीं तो सुनते हो, मैंने देखा ही कब, यह तुम्हीं तो मेरी आँखों के भीतर बस कर देखते हो। मुझे क्यों दोष देते हो प्रभ्रुवर। मैंने इच्छा ही क्या की। तुम मेरे भीतर बैठकर नाना प्रकार की इच्छाएँ न जगाते तो मुझे क्या आवश्यकता थी, जो मैं संसार में भटकता। जो कुछ भी है, अच्छा या बुरा तुम्हारा ही हैं। अब मुझे इस प्रपंच में पड़कर रहा नहीं जाता, मेरे सर्वस्व! जो कुछ भी है, तुम्हारा है, सो तुम ले लो। अपना दिया हुआ सब वापस कर लो।

पीड़ाओं के सागर से निकल कर यों ही मैं एक दिन ध्यानावस्थित होकर प्रभु से अनवरत पुकार किये चला जा रहा था। वहाँ मेरे अतिरिक्त एक दूर-दूर तक निर्जन पृथ्वी थी और उसे ड़ड़ड़ड़ में भरता हुआ शुभ्र नीलाकाश। समस्त बहिर्मुखी चित्त-वृत्तियों को मैंने समेट कर अपने भीतर भर लिया था, यों कहें मैं अपने हृदय की गुफा में आ बैठा था और उसमें बैठा-बैठा उस परम ज्योति के दर्शन कर रहा था, जो इतने समीप थी, जितना मेरा हृदय और इतनी दूर कि उसे अनन्त आकाश की विशाल बाहों से भी स्पर्श करना मेरे लिये कठिन हो रहा था। मैं निरन्तर उन पावन-ज्योति परमात्मा का भजन कर रहा था। उनके भजन में मैं संसार की सुध-बुध खो बैठा था।

हे प्रभु! मुझे क्या पता तुम दोष रहित हो, ड़ड़ड़ड़ हो या सर्वथा विकार-ग्रस्त और गुणहीन। तुम प्रकृति हो या प्रकाश, निर्मल हो या मलीन मुझे तो एक दृष्टि में तुम ही तुम दिखाई दे रहे हो, तुम्हारी ही सत्ता सारे जग में समा रही है, तुम्हीं फूलों में हँस रही हो, पत्तों में डोल रहे हो। वनस्पतियों का रस और हरीतिमा भी तुम्हीं हो, सूर्य, चन्द्र और नक्षत्रों की चमक तुम्हीं हो, बादलों की गरज, विद्युत की चमक, मेघों का वर्षण, नक्षत्रों की गति, सब कुछ तुम्हीं हो, यह संसार तुम्हीं में सभा रहा है या तुम्हीं संसार में समा रहे हो।

तुमसे बढ़कर सुन्दरतम, रूपराशि वाला मैंने और नहीं देखा, तुम से महान् और नहीं पाया तुम्हारी जैसी करुणा तो सम्राटों के हृदय में भी नहीं देखी। पृथ्वी से भी अधिक क्षमाशील और जननी से भी बढ़कर वात्सल्य का प्रवाह भेजने वाले प्रियतम! तुम्हारे अतिरिक्त और मुझे कुछ सूझ नहीं रहा। यदि मैं किसी और का गुणगान करूँ, किसी और को देखूँ, किसी और की सुनूँ तो मेरे जीवन! में आँखें न रहें, कान न रहें, जिह्वा न रहे प्रभु! तुम्हारे प्रेम की चाह लेकर तुम्हारे द्वार पड़ा हूँ। मेरे जीवन धन! ठुकरा दो अथवा प्यार करो, अब मेरे लिए और कहीं ठौर भी तो नहीं है।

हे प्रभु! मेरा जीवन तुम्हें समर्पित है। अब मैं कहीं भी रहूँ, कैसे भी रहूँ। दुःख मिले या सुख तेरा प्रेम तो निबाहूँगा ही। मेरे मन में अब सांसारिकता की चाह नहीं रही। स्वर्ग मिले या मुक्ति, नरक मिले या पुनर्भव मुझे उसकी भी चिन्ता नहीं है, प्रभु तुम्हें पाकर अब मुझे और कुछ पाने की कामना शेष नहीं रही। हे प्रभु! तुम्हारा ही प्यार, तुम्हारा ही नाम, तुम्हारा ही भजन मेरे शरीर, मन और आत्मा में छाया रहे। हे मेरे जीवन-आधार मुझ पर तुम्हारा पूर्ण अधिकार रहे, तुम मुझ पर पूर्ण अधिकार रखना।


अखण्ड  ज्योति  अक्टूबर  1969

निर्भयता ही अपराजेय है...Sadhu or Sikandar ka durlabh prasang

निर्भयता अपराजेय है

आप सब कहाँ जा रहे हैं, पंचनद के ये बहुमूल्य घोड़े हाथी खजाना किसकी भेंट के लिए जा रहा है? साधुओं में से एक ने सेनापति से पूछा। सैनिकों के बुझे चेहरे, सेनापति का मलिन मुख, सेना की यह मौन यात्रा सब कुछ विचित्र लगा। कहाँ तो पंचनद की विलय-वाहिनी रण-वाद्यों का घोष करते हुए निकला करती थी, चारों ओर विजय का उल्लास फलता दिखता था। और आज..................?

कोई आगे कुछ सोचे, इसके पहले-महासेनापति ने कातर स्वर से कहा- भगवान्! महाराज देवदर्शन की आज्ञा से हम सिकन्दर के लिए सन्धि प्रस्ताव लेकर जा रहे हैं। सैनिकों की इच्छा के विरोध में महाराज का असामयिक निर्णय जँचा नहीं पर हम विवश हैं, क्या करें?

साधुजन तड़प उठे, बोले-यह तुम आर्यावर्त के एक-सेनाधिपति बोल रहे हो। विवशता कायरों का शब्द है। उसे मुख पर लाने से पहले तुमने राजद्रोह कर दिया होता-तो तुम यशस्वी होते, सैनिक। संख्या नहीं समर्थता विजय पाती है। तुम यह न भूलों कि हमारे देश के नागरिक संयमित और सदाचारी जीवन यापन करते हैं। इसलिए उनकी शक्ति का लोहा लेना सिकन्दर के लिए भी कठिन है। पराधीन जीवन जीने से पहले तुम शहीद हो गए होते तो देश के मस्तक पर कलंक का टीका लगने का अवसर तो न आता। जाओ-जब तक इस देश का ब्राह्मण जीवित है, तब तक राज्य पराजय स्वीकार नहीं कर सकता। तुम यह उपहार लेकर लौट जाओ। सिकन्दर से सन्धि नहीं युद्ध होगा, और यह निमंत्रण हम लेकर जाएँगे।

सेनापति-सैनिकों की टुकड़ी के साथ लौट गए। सभी को जैसे मन माँगी मुराद मिली। उन सबका दमित शौर्य उल्लास बनकर चेहरों पर चमकने लगा। एक साधु सिकन्दर को युद्ध की चुनौती देने चला, शेष ने प्रजाशक्ति को जाग्रत करना-प्रारम्भ किया। देखते ही देखते जन शक्ति हथियार बाँधकर खड़ी हो गई। देवदर्शन को भी अब युद्ध के अतिरिक्त कोई मार्ग न-दिखा। सारे राज्य में रण-भेरी बजने लगी।

साधु सिकन्दर को सन्धि के स्थान पर युद्ध का निमन्त्रण दे इससे पूर्व गुप्तचर ने सारी बात उस तक पहुँचा दी। यूनान-सम्राट क्रोधित हो उठा। उसने साधु के वहाँ पहुँचने से पूर्व ही बन्दी बनाकर कारागार में डलवा दिया। उसके बाद अन्य तीन साधुओं को भी उसने छलपूर्वक पकड़वा मँगाया।

अगले दिन सिकन्दर का दरबार सजाया गया। ऐश्वर्य प्रदर्शन के सारे सरंजाम इकट्ठे थे। सर्वप्रथम बन्दी बनाए गए साधु की प्रशंसा करते हुए सम्राट ने कूटनीतिक दाँव फेंकते हुए कहा- आखर्य! आप इन सबमें वीर और विद्वान हैं। आप हमारे निर्णायक नियुक्त हुए। शेष तीन साधुजनों से हम तीन प्रश्न करेंगे, इनके उत्तर आप सुनें।

एक साधु की ओर संकेत करते हुए सिकन्दर ने प्रश्न किया-तुमने देवदर्शन की प्रजा को विद्रोह के लिए क्यों भड़काया? इसलिए कि हमारा धर्म, हमारी संस्कृति की सुरक्षा, हमारे स्वाभिमान से अनुबद्ध है। इस देश के नागरिक स्वाभिमान का परित्याग करने की अपेक्षा मर जाना अच्छा समझते हैं। देश की रक्षा हमारे धर्म है।

सिकन्दर ने दूसरा प्रश्न किया- जीवन और मृत्यु में अधिक श्रेष्ठ कौन है?

दोनों- साधु ने उत्तर दिया। जब तक कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी भय न व्यापता हो, जीवन श्रेष्ठ है। किन्तु दुष्कर्म करने से पहले मृत्यु हो जाय तो वह जीवन से अच्छी।

संसार में जीवित मनुष्य अधिक हैं या मृतक?

सिकन्दर का तीसरा प्रश्न था।

जीवित तीसरे साधु ने उत्तर दिया। मृत्यु तो क्षणिक-दुर्घटना मात्र है। जिसके बाद या तो जीवन रहता ही नहीं या रहता है तो भी जीवित आत्माओं की संख्या में ही आता है।

इससे पूर्व सिकन्दर अपना कोई निर्णय दे साधुओं की निडरता देखकर सिकन्दर के सैनिकों ने युद्ध करने से इनकार कर दिया।

वातावरण में एक पल को घनीभूत हो गई स्तब्धता। पर आघात करते हुए प्रथम साधु दण्डायन ने निर्णय के स्वर में कहा-निर्भयता-अपराजेय है। वह और उसके तीनों शिष्य एक ओर चल पड़े। आपे सैनिकों के हठ भरे आग्रह के सामने झुककर सिकन्दर लौट चलने की व्यवस्था बना रहा था।

।।श्री राधे।।

 Source- अखंड ज्योति फरवरी 1993

संत दर्शन का फल...Krishna katha... bhakt charno ki mahima

------ कृष्ण कथा ------

एक जंगल में एक संत, अपनी कुटिया में रहते थे।
एक किरात (शिकारी) जब भी वहाँ से निकलता,
संत को प्रणाम जरूर करता था।

एक दिन किरात संत से बोला- मैं तो मृग का शिकार करता हूँ,
आप किसका शिकार करने जंगल में बैठे हैं?

संत बोले- श्री कृष्ण का।
और रोने लगे।

तब किरात बोला- अरे बाबा! रोते क्यों हो?
मुझे बताओ! वो दिखता कैसा है?
मैं पकड़ के लाऊंगा उसको।

संत ने भगवान का स्वरुप बताया,
कि वो सांवला है, मोर पंख लगाता है और बांसुरी बजाता है।

किरात बोला- बाबा! जब तक मैं आपका शिकार पकड़कर नहीं लाता,
मैं पानी तक नहीं पियूँगा।

फिर वो किरात, एक जगह जाल बिछा कर बैठ गया।

तीन दिन बीत गए प्रतीक्षा करते हुए।
भगवान को दया आ गयी और वो बांसुरी बजाते हुए आ गए,
और खुद ही जाल में फंस गए।

किरात चिल्लाने लगा- शिकार मिल गया, शिकार मिल गया।
अच्छा बच्चू! तीन दिन तक भूखा-प्यासा रखा।
अब जा कर मिले हो।

किरात ने कृष्ण को शिकार की भांति अपने कंधे पे डाला,
और संत के पास ले गया।
बोला- बाबा! आपका शिकार लाया हूं।

बाबा ने जब ये दृश्य देखा,
कि किरात के कंधे पे श्री कृष्ण हैं और जाल में से मुस्कुरा रहे हैं,
संत चरणों में गिर पड़े।
फिर ठाकुर से बोले- मैंने बचपन से घर बार छोड़ा पर आप नहीं मिले।
और इसे तीन दिनों में ही मिल गए, ऐसा क्यों?

भगवान बोले- इसने तुम्हारा आश्रय लिया,
इसलिए इसे तीन दिन में दर्शन हो गए।

------ अर्थात ------
भगवान पहले उस पर कृपा करते हैं,
जो उनके दासों के चरण पकड़े होता है।

किरात को पता भी नहीं था कि भगवान कौन हैं,
पर संत को रोज प्रणाम करता था।

संत प्रणाम और दर्शन का फल ये है,
कि तीन दिनों में ही किरात को ठाकुर (भगवान) मिल गए।

------ संत मिलन को जाईये ------
------ तजि ममता अभिमान ------
------ ज्यों-ज्यों पग आगे बढ़े ------
------ कोटिन्ह यज्ञ समान ------

जब भगवान ने अपने भक्त को दी मुखाग्नि adhvut prasang

एक संत थे और अपने ठाकुर "श्रीगोपीनाथ" की तन्मय होकर सेवा-अर्चना करते थे। उन्होंने कोई शिष्य नहीं बनाया था परन्तु उनके सेवा-प्रेम के वशीभूत होकर कुछ भगवद-प्रेमी भक्त उनके साथ ही रहते थे। कभी-कभी परिहास में वे कहते कि -"बाबा ! जब तू देह छोड़ देगो तो तेरो क्रिया-कर्म कौन करेगो?"
बाबा सहज भाव से उत्तर देते कि -"कौन करेगो? जेई गोपीनाथ करेगो ! मैं जाकी सेवा करुँ तो काह जे मेरो संस्कार हू नाँय करेगो !"
समय आने पर बाबा ने देह-त्याग किया। उनके दाह-संस्कार की तैयारियाँ की गयीं। चिता पर लिटा दिया गया। अब भगवद-प्रेमी भक्तों ने उनके अति-प्रिय, निकटवर्ती एक किशोर को अग्नि देने के लिये पुकारा तो वह वहाँ नहीं था तो कुछ लोग उसे बुलाने गाँव गये परन्तु वह न मिला, इसके बाद दूसरे की खोज हुयी और वह भी न मिला। संध्या होने लगी थी, लोग प्रतीक्षा कर रहे थे कि वह किशोर शीघ्र आवे तो संस्कार संपन्न हो। अचानक प्रतीत हुआ कि किसी किशोर ने चिता की परिक्रमा कर उसमें अग्नि लगा दी। बाबा की देह का अग्नि-संस्कार होने लगा। दाह-संस्कार करने वाले को श्वेत सूती धोती और अचला [अंगोछा] धारण कराया जाता है सो भगवद-प्रेमियों ने उनके निकटवर्ती किशोर का नाम लेकर पुकारा ताकि उसे वस्त्र दिये जा सकें। किन्तु वह किशोर तो वहाँ था ही नहीं। सब एकत्रित हुए, आपस में पूछा कि किसने दाह-संस्कार किया परन्तु किसी के पास कोई उत्तर न था। संभावना व्यक्त की गयी कि कदाचित वायुदेव ने इस कार्य में सहायता की सो उन श्वेत वस्त्रों को उस चिता में ही डाल दिया गया। सब लौट आये।
प्रात: ठाकुर श्रीगोपीनाथ का मंदिर, मंगला-आरती के लिये खोला गया और क्या अदभुत दृष्य है ! ठाकुर गोपीनाथ श्वेत सूती धोती को ही धारण किये हुए हैं और उनके कांधे पर अचला पड़ा है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई वस्त्र अथवा श्रंगार नहीं है। नत-मस्तक हो गये सभी। भक्त और भगवान ! कैसा अदभुत प्रेम ! कैसा अदभुत विश्वास ! एक-दूसरे को कैसा समर्पण ! जय हो-जय हो से समस्त प्रांगण गुँजायमान हो गया।
हे मेरे श्यामा-श्याम ! दास की भी यही आपसे प्रार्थना है। दास के पास देने को वैसा प्रेम और समर्पण तो नहीं है परन्तु आप तो सर्व-शक्तिमान और परम कृपालु प्रेमी हैं और दास का प्रेम-समर्पण भले ही न हो परन्तु विश्वास में तो आपकी कृपा से कोई न्यूनता नहीं है। तो हे प्रभु ! समय आने पर एक बार फ़िर ........।
जय जय श्री राधे !

नवधा भक्ति...video spritual lecturers on Devine navadha bhakti by SHREE HIT AMBARISHJI MAHARAJ

Source- youtube/hit ras dhara

नवधा भक्ति भाग 1

आज हम अपने हरिदर्शन में भक्ति की एक नई श्रृंखला का सूत्रपात कर रहे हैं। हरि को रिझाने वाली उनकी नवधा का सम्यक प्रकार से वर्णन हम हमारे पूज्य श्री गुरुदेव जी की पावन अमृतमई में वाणी में श्रवण करेंगे।
 आज से प्रतिदिन जिस श्रंखला का एक वीडियो हमारे ब्लॉग पर पब्लिश किया जाएगा 

श्रीमद्भागवत में श्री राधा रानी का प्रत्यक्ष कथा चिंतन क्यों नही है

।।हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। विद्वान और पंडित लोग कहते हैं जिस समाधि भाषा में भागवत लिख...